Thursday, April 15, 2010

"समाज में बच्चों व बचपन के प्रति सम्मान का भाव"


बच्चों के मामले में समाज में दो तरह के रवैये दिखाई देते हैं। अगर कोई व्यक्ति संवेदनशील है, तो अभावग्रस्त बच्चों पर दया दिखाते हुए उन पर उपकार करेगा। दूसरी तरह के लोग वे हैं जो अपना लाभ बढ़ाने और मौजमस्ती के लिए ऐसे बच्चों के इस्तेमाल से नहीं हिचकते। ये लोग या तो मजदूर के रूप में बच्चों का शोषण करते हैं या फिर अपनी हवस के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए वे बच्चों पर हिंसा करने से भी नहीं चूकते। पर इस तरह के लोगों के अलावा समाज में ऐसे कितने लोग हैं जिन्हें बाल अधिकारों की कोई समझ है?
हर बच्चा नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ जन्मता है। किंतु कितने लोग हैं, जो इन अधिकारों का सम्मान करते हैं और बच्चों के प्रति संवेदनापूर्ण नजरिया रखते हैं? गंभीर बात तो यह है कि बाल अधिकारों का मुद्दा परिचर्चाओं की शोशेबाजी में उलझा हुआ है या फिर एनजीओ अथवा सरकारी महकमों की दिखाऊ परियोजनाओं का हिस्सा बनकर रह गया है।
देश में जो 6 करोड़ बाल मजदूर हैं, वे गरीब माता-पिता के बच्चे हैं। ये माता-पिता इसलिए गरीब हैं क्योंकि या तो वे बेरोजगार हैं या उन्हें साल भर में 50-60 दिन से ज्यादा रोजगार नहीं मिलता। इन लोगों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिलती। बच्चों को इसलिए काम पर लगाया जाता है क्योंकि वे सबसे सस्ते या मुफ्त के श्रमिक हैं और वे मालिकों के लिए किसी प्रकार की चुनौती भी नहीं होते। एक गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में साढ़े 6 करोड़ वयस्क लोग बेरोजगार हैं, जिनमें से ज्यादातर बाल मजदूरों के अभिभावक हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस भी उद्योग-धंधे में बाल मजदूरों से काम लिया जा रहा है, वहां वयस्क मजदूरों का मेहनताना बहुत कम हो जाता है।
अगर यह अनुमान लगाया जाए कि देश में 6 करोड़ बाल मजदूरों को औसतन 10 रुपये मजदूरी मिलती है, तो सभी बच्चे मिलकर प्रतिदिन 60 करोड़ रुपये कमा लेते हैं। यदि इन बच्चों की जगह वयस्कों को काम मिले, तो उनकी आमदनी 8 से 10 गुना ज्यादा होगी। इससे पूरे परिवार की गरीबी दूर हो सकती है और बच्चों को शिक्षा का अधिकार हासिल भी हो सकता है।
पर सवाल यह है कि जब किसी मालिक को, चाय के ढाबे, छोटी-मोटी दुकानों, सड़क किनारे के होटलों, रेस्टोरेंटों आदि पर काम करने के लिए नाममात्र की मजदूरी पर या मुफ्त में बच्चे मिल जाते हों तो वह ज्यादा पैसे देकर बड़ों को काम पर क्यों लगाएगा? इससे मां-बाप गरीब बने रहते हैं और बच्चे बाल मजदूरी की चक्की में पिसते रहते रहे हैं। ऐसे में, यह मानना भूल होगी कि बाल मजदूर अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आमदनी का जरिया हैं। इसी तरह यह मिथक भी अब टूटना चाहिए कि बाल मजदूरी और अशिक्षा की मुख्य वजह गरीबी है। उत्तर प्रदेश और केरल दो ऐसे राज्य हैं, जहां लगभग बराबर गरीबी है। इस गरीबी के बावजूद केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता दर कायम है, जबकि उत्तर प्रदेश इस मामले में लगातार पिछड़ा रहा है।
बाल अधिकारों के संबंध में बाल व्यापार की बात भी उठती है, जिसे सामान्यत: वेश्यावृत्ति के साथ जोड़ा जाता है। पर यह पूरा सच नहीं है। असलियत में 90-95 प्रतिशत बाल व्यापार बंधुआ या जबरन मजदूरी, भिक्षावृत्ति, आपराधिक कृत्यों, सर्कस आदि मनोरंजन उद्योगों तथा घरेलू बाल मजदूरी आदि के लिए होता है। अफसोस की बात यह है कि हमारे देश में इस तरह का बाल व्यापार रोकने अथवा इस अपराध में शामिल लोगों को सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है।
आज यह बात हर कोई कहता है कि अच्छी शिक्षा पाने वाले भारत के 10-15 फीसदी युवाओं ने सूचना तकनीक, इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में अपने टैलंट के बल पर दुनिया में तहलका मचा दिया है। इससे दुनिया में भारत की छवि ही बदल गई है। फर्ज कीजिए कि अगर देश के बाकी यदि 85 फीसदी बच्चे भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अर्जित कर सकें, तो देश को जल्द ही एक महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है। यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, बशर्ते इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति हो और पूरे समाज में बच्चों व बचपन के प्रति सम्मान का भाव जगे। जो समाज अभी कहने को तो बच्चों को ईश्वर का रूप कहता है पर व्यवहार में इसके उलट है, उसमें बच्चों के प्रति संवेदना और बुनियादी नैतिकता पैदा करने की जरूरत है।


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