Monday, September 16, 2013

इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
تو ہندو بنےگا نہ مسلمان بنےگا
You’ll become neither Hindu nor Muslim
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
انسان کی اولاد ہے انسان بنےگا
You are the child of a human; you’ll become a human
(as opposed to being labeled as Hindu or Muslim)
अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है
اچھا  ہے ابھی تک تیرا کچھ نام نہیں ہے
Good that ’til now you have no name
तुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं है
تجھ کو کسی مذہب سے کوئی کام نہیں ہے
You have no dealing with any religion
जिस इल्म ने इंसानों को तक़सीम किया है
جس علم نے انسانوں کو تقسیم کیا ہے
The knowledge which has divided humans
उस इल्म का  तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है
اس علم کا تجھ پر کوئی الزام نہیں ہے
That knowledge will not burden you
(with accusations)
तू बदले हुए वक़्त की पहचान बनेगा
تو بدلے ہوئے وقت کی پہچان بنےگا
You will be the face of the changing times
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
انسان کی اولاد ہے انسان بنےگا
You are the child of a human; you’ll become a human
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
مالک نے ہر انسان کو انسان بنایا
God made each a human
हम ने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया
ہم نے اسے ہندو یا مسلمان بنایا
We made each a Hindu or a Muslim
क़ुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती
قدرت نے تو بخشی تھی ہمیں ایک ہی دھرتی
Nature allocated one earth to us
हम ने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया
ہم نے کہیں بھارت کہیں ایران بنایا
Whereas we have created India and Iran
जो तोड़ दे हर बांध वह तूफ़ान बनेगा
جو توڑ دے ہر باندھ وہ طوفان بنےگا
The one who breaks each lock will become a storm
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
انسان کی اولاد ہے انسان بنےگا
You are the child of a human; you’ll become a human
नफ़रत जो सिखाए वह धर्म तेरा नहीं है
نفرت جو سکھاے وہ دھرم تیرا نہیں ہے
The religion that teaches hatred is not yours
इंसान को जो रौंदे वह क़दम तेरा नहीं है
انسان کو جو روندے وہ قدم تیرا نہیں ہے
The step/foot that tramples humanity is not yours
क़ुरआन न हो जिस में वह मंदिर नहीं है तेरा
قرآن نہ ہو جس میں مندر نہیں ہے تیرا
The temple without a Qur’an is not your temple
गीता न हो जिस में वह हरम तेरा नहीं है
گیتا نہ ہو جس میں وہ حرم تیرا نہیں ہے
The mosque without a Gita is not your mosque
तू अमन का और सुलह का अरमान बनेगा
تو امن اور صلح کا ارمان بنےگا
You will become hope for peace and reconciliation
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
انسان کی اولاد ہے انسان بنےگا
You are the child of a human; you’ll become a human
ये दीन के ताजर ये वतन बेचने वाले
یے دین کے تاجر یے وطن بیچنے والے
These traders of religion; these who sell the country
इंसानों की लाशों के कफ़न बेचने वाले
انسانوں کی لاشوں کے کفن بیچنے والے
These who sell the shroud off of corpses
ये महलों में बैठे हुए क़ातिल ये लुटेरे
یے مہلوں میں بیٹھے ہوے قاتل یے لٹیرے
These murderers and thieves sitting in palaces
काँटों के एवज रूह ए चमन बेचने वाले
کانٹوں کے ایوز روحِ چمن بیچنے والے
These who sell thorns instead of flowers
तू इन के लिए मौत का ऐलान बनेगा
تو ان کے لئے موت کا اعلان بنےگا
You will become their death knell
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
انسان کی اولاد ہے انسان بنےگا
You are the child of a human; you’ll become a human


http://www.youtube.com/watch?v=jqcyUkUFzrc

Thursday, October 18, 2012

लोकप्रियता की बारिश हुई है तो हम भी नहायेंगे।


आज कल हर कोई भ्रष्टाचार से उब चूका है, लेकिन बहार निकल के आवाज़ उठाने में थोड़ी शर्म या फिर डर सा लग रहा है,  इसीलिए शायद केजरीवाल के कदमो को वाह वाह मिल रही है, क्यूँ की उसने उठाये कदमो को लोग अपना कदम मान के चल रहे है। केजरीवाल आजकल मीडिया में छाये हुए है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग है जो सोचते है की बारिश हुई है तो हम भी नहायेंगे। एसे ही लोगो में आज नए महाशय बाहर आये है, लेकिन इस महाशय ने भ्रष्टाचार को छोड़ केजरीवाल  पे ही निशाना साधा है। इस महोदय का नाम है वाईपी सिंघ। यह महोदय पूर्व आईपिएस अधिकारी रह चुके है और फिल हाल वकालत कर रहे है । सिंघ का आरोप है की अरविंद केजरीवाल ने सिर्फ नितिन गडकरी को ही निशाना बनाया लेकिन शरद पवार को छोड़ दिया।  सिंघ एक समय केजरीवाल के मित्र भी थे। आज सिंह ने   
      
एक प्रेसवार्ता  के दौरान यह खुलासा किया है। सिंह और उनकी पत्नी आभा सिंघ ने मिल के भ्रष्टाचार को 
दूर रखा लेकिन सीधा निसाना साधा केजरीवाल पे। वाईपी सिंघ ने कहा की सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का उलंघन करते हुए महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहे अजित पवार ने बिना सार्वजनिक नीलामी के लवासा की 348 एकड़ जमीन लेक सिटी कोर्पोरेशन को 23 हजार रुपये प्रति वर्गफुट किराए पर 30 साल के लिए लिज़ पर देदी। इस कंपनी में शरद पवार की  बेटी सुप्रिया सुले और उनके पति सदानंद सुले के भी शेयर थे। यहा तक तो ठीक था लेकिन महोदय ने इस मुद्दे को छोड़ सीधा निसाना छोड़ा अरविंद केजरीवाल पर। सिंघ का आरोप है की केजरीवाल के पास यह सब सबुत  होने के बावजूद भी छुप्पी साधी। सिंघ यहाँ पे एक गलती कर रहे है अगर उन्हें इस बात की पूरी जानकारी थी तो वे भी चुप  क्यु रहे ? क्यों उन्होंने केजरीवाल ही इस मुद्दे को उठाये इस आस में चुप्पी साधी? आज किये इस खुलासे के पीछे दो कारण दिख रहे है एक तो केजरीवाल से पुराना हिसाब किताब निपटाना यानी उन्हे बदनाम करना या फिर केजरीवाल को मिल रही लोकप्रियता को मोड़ के खुद को इस लोकप्रियता की बारिश में भिगोना। खेर जो भी हो चलो इस बहाने भ्रष्टाचार तो बहार आया।  


वही एक और महोदया है अन्जलीजी। अन्जलीजी ने भले ही गडकरी की पोल खोलने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो लेकिन उनके खिलाफ भी आरोप है की उनकी और गडकरी की नहीं बनी तो महोदया ने पाच साल पुराने बक्से में से जादुई जिन निकाला। मकसद भ्रष्टाचार या बदला जो भी हो भ्रष्टाचार तो सामने आ रहा है और देश की जनता रोज इस लोकप्रियता की बारीश में नहा ने या पैर भिगोने बाहर आ रहे लोगो के तमाशे  का  लुप्त उठा रही है। लेकिन कब तक? मुझे लगता है जब तक भ्रष्टाचार रहेगा ऐसी दबी आवाज़े चाहे मकसद कोई भी हो बाहर आती रहेगी।

Thursday, April 29, 2010

"कुपोषण का शिकार होकर अकाल मौत के मुंह में समा रहे बच्चे"

यह हैरत की बात है कि जिस देश के खाद्यान भंडारों में पड़ा अनाज सड़ रहा हो उस देश के नौनिहाल कुपोषण का शिकार होकर अकाल मौत के मुंह में समा रहे हैं. यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के ऐसे बच्चों की तादाद दुनिया में सबसे ज़्यादा है, जिनका कुपोषण के कारण विकास रुक गया है. विकासशील देशों में ऐसे बच्चों की संख्या करीब 20 करोड़ है.
बच्चों और माताओं के पोषण से संबंधित इस रिपोर्ट के मुताबिक़ बच्चों का विकास अवरुद्ध होने का प्रमुख कारण कुपोषण है. यह पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की एक तिहाई मौतों का प्रमुख कारण भी है. भारत में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग में कम वजन वाले बच्चों की संख्या भी अधिक है. इसके अलावा विभिन्न कारणों से दुनिया भर में होने वाली बच्चों की मौतों में से एक तिहाई भारत में ही होती हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ विकासशील देशों में प्रति वर्ष जन्मे कम वजन वाले 1.9 करोड़ बच्चों में 74 लाख बच्चे भारत के होते हैं, जो दुनिया में सर्वाधिक है. विकासशील देशों के 80 फ़ीसदी कुपोषित बच्चे 24 देशों में रह रहे हैं.
यूनिसेफ की प्रमुख एनएम वेनेमैन का कहना है कि कुपोषण के कारण बच्चे की शारीरिक शक्ति कम हो जाती है, जिससे वह बीमार हो जाता है. कमज़ोर शरीर निमोनिया, डायरिया और अन्य रोगों की चपेट में आ जाता है. इन बीमारियों से जिन बच्चों की मौत होती है उनमें से एक तिहाई से ज़्यादा बच्चे अगर कुपोषण का शिकार नहीं हों तो उन्हें बचाया जा सकता है. भारत में कुपोषण और अविकसित बच्चों की अधिक संख्या का कारण देश की आबादी अधिक होना, बेरोज़गारी और ग़रीबी है.
गौरतलब है कि कुपोषण के कारण अविकसित बच्चों के मामले में अफगानिस्तान पहले नंबर पर है, जबकि भारत का स्थान 12वां है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया और अफ्रीका में 90 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण के कारण कम विकसित हैं, लेकिन दोनों महाद्वीपों में अब इनकी हालत में सुधार हो रहा है. एशिया में ऐसे बच्चों की तादाद 1990 के 44 फीसदी के मुकाबले 2008 में घटकर 30 फ़ीसदी रह जाने की उम्मीद है. इसी तरह अफ्रीका में ऐसे बच्चों की तादाद 1990 के 38 फ़ीसदी के मुकाबले 34 फ़ीसदी रह जाने की उम्मीद है.
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी ही विकास में रुकावट बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.
दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं. देश की लगातार बढती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढ़ी बेरोजगारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है. आज भी भारत में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे. एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की जरूरत होती है. इसलिए सबसे बडी चुनौती फिलहाल भूखों को भोजन कराना है. हमारे संविधान में कहा गया है कि ‘राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा. ‘ मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो जाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं.
हालांकि भारत सरकार ने बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए 15 अगस्त, 1995 में स्कूलों में ‘मिड डे मील’ योजना भी शुरू की, दुनिया के सबसे बड़े पोषण कार्यक्रमों में से एक है. मगर यह योजना भी लापरवाही और भ्रष्टाचार की शिकार रही है. बच्चों के भोजन में छिपकली, मेंढक व कीड़े मिलना, बच्चों को दूषित भोजन दिया जाना, मिड डे मील के भोजन से बच्चों का बीमार हो जाना और तयशुदा मात्रा से कम भोजन दिए जाने की शिकायतें भी आम रही हैं. मिड डे मिल के अनाज में हेराफेरी की खबरें आए दिन सुनने को मिलती रहती हैं. नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में इस योजना की अनेक खामियां उजागर की गईं हैं, जिससे इस योजना की जमीनी हकीकत का पता चलता है. कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि मिड-डे मिल योजना में केंद्र सरकार की ओर से जारी सहायता राशि का इस्तेमाल दूसरी योजनाओं में हो रहा है.
परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री रेणुका चौधरी भी कुपोषण की इस हालत पर चिंता जताते हुए इसे भयावह और शर्मनाक करार देती हैं. उनका मानना है कि नेताओं समेत शिक्षित वर्ग का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण की समस्या को समझने में नाकाम रहा है. कुपोषण के लिए कृषि में आए बदलाव को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए वे कहती हैं कि नगदी फसलों के प्रति बढ़े रुझान के कारण किसानों ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा खो दी है.

महिला और बाल विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री कृष्णा तीरथ ने हाल ही में राज्यसभा में बताया कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2005-06 के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के 42.5 प्रतिशत बच्चों के वजन कम हैं। कुपोषण की समस्या बहुआयामी है और इसके निर्धारकों में घरेलू खाद्य सुरक्षा, विशेषकर महिलाओं की निरक्षरता और जागरूकता का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, स्वच्छता और पर्यावरण संबंधी स्थितियां और क्रय शक्ति आदि शामिल हैं। इसके अलावा लड़कियों का कम उम्र में विवाह होना और कम उम्र में गर्भ धारण भी नवजात शिशुओं के जन्म के समय वजन कम होने का कारण है। इसके साथ ही मां के दूध की कमी, वैकल्पिक पोषकों की कमी, शिशुओं और छोटे बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतों की उपेक्षा और बार-बार संक्रमित होना भी इसके कारण हैं। सरकार कई ऐसी योजनाएं चलाती रही हैं जिनके कारण लोगों के पोषण स्तर में सुधार होता है। दोपहर भोजन योजना, किशोरी शक्ति योजना, अंत्योदय अन्न योजना और संपूर्ण स्वच्छता अभियान इनमें प्रमुख हैं।
इतना ही नहीं प्रशासनिक लापरवाही के चलते हर साल अनाज के सरकारी गोदामों में पड़ा हजारों टन अनाज सड़ जाता है. अगर यह अनाज भूखों के पेट में जाता तो कितनी ही जिंदगियों को बचाया जा सकता था. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज के बच्चे कल का भविष्य हैं. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि उन्हें भरपेट संतुलित आहार मिले. इसके लिए सरकार को पंचायती स्तर पर प्रयास करने होंगे. हमारे देश में अनाज के भंडार भरे हुए हैं, ऐसी हालत में भी अगर बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं तो इसकी जवाबदेही सरकार और प्रशासन की है.


Friday, April 16, 2010

"शहीद-ए-आजम की डायरी"

शहीद-ए-आजम भगतसिंह ने आजादी का ख्वाब देखते हुए जेल में जो दिन गुजारे, उन्हें पल-पल अपनी डायरी में दर्ज किया। 404 पृष्ठ की यह मूल डायरी आज भगत सिंह के पौत्र [भतीजे बाबर सिंह संधु के पुत्र] यादविंदर सिंह के पास है जिसे उन्होंने अनमोल धरोहर के रूप में संजोकर रखा है।दिल्ली के नेहरू मेमोरियल म्यूजियम में इस डायरी की प्रति भी उपलब्ध है ्रजबकि राष्ट्रीय संग्रहालय में इसकी माइक्रो फिल्म रखी है।उच्चतम न्यायालय में लगी एक प्रदर्शनी में भी इस डायरी को प्रदर्शित किया जा चुका है।डायरी के पन्ने अब पुराने हो चले हैं, लेकिन इसमें उकेरा गया एक-एक शब्द देशभक्ति की अनुपम मिसाल के साथ ही भगत सिंह के सुलझे हुए विचारों की तस्वीर पेश करता नजर आता है। शहीद-ए-आजम ने यह डायरी अंगे्रजी भाषा में लिखी है, लेकिन बीच-बीच में उन्होंने उर्दू भाषा में वतन परस्ती से ओत-प्रोत पंक्तियां भी लिखी हैं।भगत सिंह का सुलेख इतना सुंदर है कि डायरी देखने वालों की निगाहें ठहर जाती हैं। डायरी उनके समूचे व्यक्तित्व के दर्शन कराती है। इससे पता चलता है कि वह महान क्रांतिकारी होने के साथ ही विहंगम दृष्टा भी थे।बाल मजदूरी हो या जनसंख्या का मामला, शिक्षा नीति हो या फिर सांप्रदायिकता का विषय, देश की कोई भी समस्या डायरी में भगत सिंह की कलम से अछूती नहीं रही है।उनकी सोच कभी विदेशी क्रांतिकारियों पर जाती है तो कभी उनके मन में गणित, विज्ञान, मानव और मशीन की भी बात आती है।

 डायरी में पेज नंबर 60 पर उन्होंने लेनिन द्वारा परिभाषित साम्राज्यवाद का उल्लेख किया है तो पेज नंबर 61 पर तानाशाही का। इसमें मानव-मशीन की तुलना के साथ ही गणित के सूत्र भी लिखे हैं।इन 404 पन्नों में भगत के मन की भावुकता भी झलकती है जो बटुकेश्वर दत्त को दूसरी जेल में स्थानांतरित किए जाने पर सामने आती है।मित्र से बिछुड़ते समय मन के किसी कोने में शायद यह अहसास था कि अब मुलाकात नहीं होगी, इसलिए निशानी के तौर पर डायरी में भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के ऑटोग्राफ ले लिए थे। बटुकेश्वर ने ऑटोग्राफ के रूप में बीके दत्त के नाम से हस्ताक्षर किए।अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ होने के साथ ही भगत सिंह इतिहास और राजनीति जैसे विषयों में भी पारंगत थे।सभी विषयों की जबर्दस्त जानकारी होने के चलते ही हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी [एचएसआरए] के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने उन्हें अंग्रेजों की नीतियों के विरोध में आठ अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की इजाजत दी थी।27 सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह 23 मार्च 1931 को मात्र 23 साल की उम्र में ही देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए। देशवासियों के दिलों में वह आज भी जिन्दा हैं।




Thursday, April 15, 2010

"समाज में बच्चों व बचपन के प्रति सम्मान का भाव"


बच्चों के मामले में समाज में दो तरह के रवैये दिखाई देते हैं। अगर कोई व्यक्ति संवेदनशील है, तो अभावग्रस्त बच्चों पर दया दिखाते हुए उन पर उपकार करेगा। दूसरी तरह के लोग वे हैं जो अपना लाभ बढ़ाने और मौजमस्ती के लिए ऐसे बच्चों के इस्तेमाल से नहीं हिचकते। ये लोग या तो मजदूर के रूप में बच्चों का शोषण करते हैं या फिर अपनी हवस के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए वे बच्चों पर हिंसा करने से भी नहीं चूकते। पर इस तरह के लोगों के अलावा समाज में ऐसे कितने लोग हैं जिन्हें बाल अधिकारों की कोई समझ है?
हर बच्चा नैसर्गिक, संवैधानिक और कानूनी अधिकारों के साथ जन्मता है। किंतु कितने लोग हैं, जो इन अधिकारों का सम्मान करते हैं और बच्चों के प्रति संवेदनापूर्ण नजरिया रखते हैं? गंभीर बात तो यह है कि बाल अधिकारों का मुद्दा परिचर्चाओं की शोशेबाजी में उलझा हुआ है या फिर एनजीओ अथवा सरकारी महकमों की दिखाऊ परियोजनाओं का हिस्सा बनकर रह गया है।
देश में जो 6 करोड़ बाल मजदूर हैं, वे गरीब माता-पिता के बच्चे हैं। ये माता-पिता इसलिए गरीब हैं क्योंकि या तो वे बेरोजगार हैं या उन्हें साल भर में 50-60 दिन से ज्यादा रोजगार नहीं मिलता। इन लोगों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी तक नहीं मिलती। बच्चों को इसलिए काम पर लगाया जाता है क्योंकि वे सबसे सस्ते या मुफ्त के श्रमिक हैं और वे मालिकों के लिए किसी प्रकार की चुनौती भी नहीं होते। एक गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में साढ़े 6 करोड़ वयस्क लोग बेरोजगार हैं, जिनमें से ज्यादातर बाल मजदूरों के अभिभावक हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस भी उद्योग-धंधे में बाल मजदूरों से काम लिया जा रहा है, वहां वयस्क मजदूरों का मेहनताना बहुत कम हो जाता है।
अगर यह अनुमान लगाया जाए कि देश में 6 करोड़ बाल मजदूरों को औसतन 10 रुपये मजदूरी मिलती है, तो सभी बच्चे मिलकर प्रतिदिन 60 करोड़ रुपये कमा लेते हैं। यदि इन बच्चों की जगह वयस्कों को काम मिले, तो उनकी आमदनी 8 से 10 गुना ज्यादा होगी। इससे पूरे परिवार की गरीबी दूर हो सकती है और बच्चों को शिक्षा का अधिकार हासिल भी हो सकता है।
पर सवाल यह है कि जब किसी मालिक को, चाय के ढाबे, छोटी-मोटी दुकानों, सड़क किनारे के होटलों, रेस्टोरेंटों आदि पर काम करने के लिए नाममात्र की मजदूरी पर या मुफ्त में बच्चे मिल जाते हों तो वह ज्यादा पैसे देकर बड़ों को काम पर क्यों लगाएगा? इससे मां-बाप गरीब बने रहते हैं और बच्चे बाल मजदूरी की चक्की में पिसते रहते रहे हैं। ऐसे में, यह मानना भूल होगी कि बाल मजदूर अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आमदनी का जरिया हैं। इसी तरह यह मिथक भी अब टूटना चाहिए कि बाल मजदूरी और अशिक्षा की मुख्य वजह गरीबी है। उत्तर प्रदेश और केरल दो ऐसे राज्य हैं, जहां लगभग बराबर गरीबी है। इस गरीबी के बावजूद केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता दर कायम है, जबकि उत्तर प्रदेश इस मामले में लगातार पिछड़ा रहा है।
बाल अधिकारों के संबंध में बाल व्यापार की बात भी उठती है, जिसे सामान्यत: वेश्यावृत्ति के साथ जोड़ा जाता है। पर यह पूरा सच नहीं है। असलियत में 90-95 प्रतिशत बाल व्यापार बंधुआ या जबरन मजदूरी, भिक्षावृत्ति, आपराधिक कृत्यों, सर्कस आदि मनोरंजन उद्योगों तथा घरेलू बाल मजदूरी आदि के लिए होता है। अफसोस की बात यह है कि हमारे देश में इस तरह का बाल व्यापार रोकने अथवा इस अपराध में शामिल लोगों को सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है।
आज यह बात हर कोई कहता है कि अच्छी शिक्षा पाने वाले भारत के 10-15 फीसदी युवाओं ने सूचना तकनीक, इंजीनियरिंग और चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में अपने टैलंट के बल पर दुनिया में तहलका मचा दिया है। इससे दुनिया में भारत की छवि ही बदल गई है। फर्ज कीजिए कि अगर देश के बाकी यदि 85 फीसदी बच्चे भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अर्जित कर सकें, तो देश को जल्द ही एक महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है। यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, बशर्ते इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति हो और पूरे समाज में बच्चों व बचपन के प्रति सम्मान का भाव जगे। जो समाज अभी कहने को तो बच्चों को ईश्वर का रूप कहता है पर व्यवहार में इसके उलट है, उसमें बच्चों के प्रति संवेदना और बुनियादी नैतिकता पैदा करने की जरूरत है।


Monday, April 12, 2010

विकास का लाभ क्या गरीबो को मिल रहा है?

           देश में विकास का लाभ अमीरों को तो खूब मिला है, लेकिन गरीबों की हालत आज भी कमोबेश जस की तस है। वर्तमान आर्थिक नीतियों और उदारीकरण के कारण देश के 17 फीसदी लोग करोड़ों-करोड़ों रुपये और अपार संपत्ति के मालिक बन गए हैं। वे स्वयं को अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने वाला मानने लग गए हैं, जबकि 83 फीसदी जनता गरीबी में जीवन बसर कर रही है। उसे न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न न्यूनतम मजदूरी।
           यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकाक के 134वें नंबर पर पिछले दो साल से ठहरा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत के राज्यों की तुलना दुनिया के घोर गरीब और तेजी से विकसित हो रहे देशों से की गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार और उड़ीसा की स्थिति घाना तथा मालावी से भी खराब है, जबकि भारत के ही अन्य राच्य पंजाब ने तरक्की में ब्राजील और मैक्सिको को पछाड़ दिया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल के मोर्चे पर देश की दशा दयनीय है।
          अध्ययन में राज्य दर राज्य विषमता को बताया ही गया है, इलाकेवार अंतर्विरोधों का उल्लेख भी किया गया है। देश के 110 करोड़ लोगों में से 62 करोड़ ऐसे राज्यों में रहते हैं, जो विकास में सबसे नीचे हैं। इन पिछड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में देश की एक तिहाई आबादी रहती है। तेज और पिछड़े राज्यों में अंतर शासन की गुणवत्ता का भी है।
           यह तथ्य झकझोरता है कि विकास की होड़ में आगे दर्शाए जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व महाराष्ट्र के कुछ जिलो में बाल मृत्युदर सर्वाधिक पिछड़े घोषित राज्यों [बिहार, उड़ीसा आदि] से भी ज्यादा है। मतलब, विकास के लाभ का फल एक ही राज्य की जनता को भी बराबर नहीं मिल रहा। ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्पष्ट भेद है। कुल मिलाकर तेज आर्थिक विकास दर अपने आप में जन-समृद्धि का पर्याय नहीं होती।
          समस्या दरअसल उच्च विकास दर अर्जित करने की उतनी नहीं, जितनी कि उच्च विकास दर को बनाए रखने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चौड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।


Thursday, April 8, 2010

"देश में गरीबी"

"देश में गरीबी"


जब किसी देश में प्रजातंत्र का अर्थ केवल दलीय साथ को मजबूत करना और दूसरों को जीने के अधिकार से वंचित कर प्राकृतिक संपदा के दोहन से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सूचकांक को बढ़ाना रह जाए तो ऐसे देश में गरीबी बढऩा तय है। इस हकीकत का खुलासा करने वाले हाल ही में दो प्रतिवेदन (रिपोर्टें) ऐसे आए हैं जो तय करते हैं कि भारत में गरीबी का दायरा बेइंतहा बढ़ता जा रहा है। योजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट बताती है कि देश में ४२ प्रतिशत लोग बमुश्किल गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को विवश हैं। ठीक इसके पहले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट ने दर्शाया था कि भारत जीवन स्तर के मानक सूचकांकों की कसौटी पर चार पायदान फिसलकर १३४ वें पर आ गया है। ये प्रतिवेदन सुनिश्चित करते हैं कि भारत की आर्थिक संपन्नता एकांगी है और वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने के भ्रम में वह सिर्फ रेगिस्तानी कुलांचें मार रहा है। आधी आबादी को जीने के मौलिक व संवैधानिक अधिकार से वंचित कर विश्व महाशक्ति बनने का भी क्या औचित्य है ?




देश में संपन्नता और विपन्नता के बीच विषमता की जो खाई लगातार बढ़ रही है उसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक, प्राकृतिक संसाधनों और वन संपदा का सरकारी व निजीकरण। दो, कृषि का यांत्रिकीकरण हो जाने से घाटे में तホदील होती खेती। और तीन संपन्न तबके में बढ़ती भ्रष्टाचार व भोग की लालसा। हैरानी की बात यह है कि विषमता के इन कारकों को केन्द्र व राज्य सरकारें नियंत्रित कर हतोत्साहित करने की बजाय सホसिडी व करों में रियायतें देकर प्रोत्साहित कर रही हैं। इसी साल विाा मंत्री ने बजट प्रावधानों में पूंजीपतियों को कर रियायतों के रूप में करीब तीन लाख करोड़ रूपये की छूटें दी। जबकि कई साल से सूखे और भ्रष्टाचार की मार झेल रहे किसानों को कर्ज माफी के लिए कुल साार हजार करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया। ये प्रावधान विसंगति बढ़ाने वाले नहीं तो और क्या हैं ? जबकि होना यह चाहिए था कि भोग और आर्थिक लिप्सा में लिप्त पूंजीतियों से सチती से बकाया करों की वसूली की जानी चाहिए थी ? क्या राजनीति का यही कल्याणकारी अजेंडा है ?


सुरेश तेंदुलकर की रिपोर्ट से पता चलता है कि जनहित व लोकल्याण का राष्ट्र में भ्रम बनाए रखने के लिए गरीबी व गरीबों की संチया के वास्तविक आंकड़ों पर पर्दा डाला जाता रहा है। हकीकत को बेपर्दा करने वाली इस रिपोर्ट ने साबित किया है कि लगभग ४२ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे कठिन से कठिनतर हालातों में गुजर-बसर कर रहे हैं। जबकि भारत सरकार अब तक करीब २९ प्रतिशत लोगों को ही गरीब मानकर चल रही थी। मसलन जिन गांवों में भारत बसता है का राजनीतिक दल ढोल पीटते नहीं अघाते, उनमें सवा तीस करोड़ लोगों की बजाय ४१ करोड़ लोग ऐसे हैं जो जीने के अधिकार से वंचित रहते हुए भुखमरी के दायरे में जीने को अभिशप्त हैं। इसलिए यह तथ्य वास्तविकता के निकट है कि देश में ४० फीसदी से भी ज्यादा लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं। मुनाफे की अर्थव्यवस्था का क्या यही लोकहित है ?


हमारे देश की सनातनी परंपरा ने ऐसे संस्कार डाले थे कि हमारी आदिवासियों समेत सभी जातीय समूह प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए उसका उपयोग जरूरत की हद तक करते थे। लेकिन विकसित देश कहलें या विकसित लोग हमें मुनाफे के ऐसे विकारग्रस्त सरोकारों से जोड़ रहे हैं कि हमने प्राकृतिक संपदा को सिर्फ मुनाफे के नजरिये से देखना शुरू कर दिया है। लिहाजा प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते निजीकरण के चलते जो आबादी प्रकृति और जंगल पर निर्भर थी उसे उपभोग की वस्तुओं के लिए बाजार का मुंह ताकना पड़ रहा है। इससे यह साबित होता है कि भूमण्डलीय नवउदारवादी कल्याण उच्च और मध्यवर्गीय लोगों तक सिमटकर रह गए हैं।


इन दिनों विश्व की आबादी लगभग छह अरब सात करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के मुताबिक यह सदी के मध्य (२०५०) तक सालाना सात करोड़ ८० लाख की बढ़ााोरी दर के चलते नौ अरब २० करोड़ हो जाएगी। वाशिंगटन भू-नीति संस्थान का कहना है कि इतनी आबादी को पेट भर खाद्यान्न मुहैया कराने के लिए सोलह सौ हजार अतिरिक्त कृषि रकबे की दरकार होगी। लेकिन भारत समेत पूरी दुनिया में विडंबना यह है कि एक ओर तो औद्योगिक विस्तार के लिए पूरी दुनिया में कृषि भूमि का इस्तेमाल हो रहा है इस कारण कृषि रकबा बढऩे की बजाय घट रहा है। दूसरे, औद्योगीकरण ही जलवायु परिर्वतन और धरती के बढ़ते तापमान का प्रमुख कारण माना जा रहा है, इन वजहों से मौसम ने रूठने के जो तेवर अपनाये हुए हैं वे कृषि पर निर्भर लोगों के लिए आत्मघाती साबित हो रहे हैं। हमारे देश में विदर्भ और बुन्देलखण्ड प्रकृति की इसी नाराजी का शिकार पिछले कई सालों से हो रहे हैं।


कुछ ऐसे ही हालातों के चलते भारत मानव विकास की दौड़ में भी लगातार पिछड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि भारत मानक जीवन स्तर के सूचकांक की कसौटी के १३४ वें पायदान पर आ गया है। भारत २००६ में मानव विकास की दौड़ में १२६ वें पायदान पर २००७-२००८ में १२८ वीं और अब २००९ में १३४ वीं पायदान पर है। इससे तय होता हे कि देश की एक बढ़ी आबादी प्रति व्यक्ति आय और क्रय क्षमता में लगातार पिछड़ रही है। यह आबादी न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाओं और प्राथमिक शिक्षा के मौलिक हकों से भी वंचित है। ये हालात उस देश के लिए नितांत शर्मनाक हैं जो देश वैश्विक महाशक्ति बनने का सपना देख रहा हो। असमानता के ऐसे ही प्रावधानों के चलते सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का योगदान ५२ प्रतिशत से घटकर १९ प्रतिशत और कृषि विकास की औसत दर ४.५ प्रतिशत से घटकर ३.३ प्रतिशत रह गई है। देश के कुल निर्यात में कृषि उत्पादों का मूल्य भी ६० प्रतिशत से घटकर १० प्रतिशत से भी कम रह गया है।


विश्व में प्रचलित गरीबी की परिभाषा के दायरे में भारत का आकलन करें तो यह कड़वी सच्चाई है कि भारत की कुल आबादी दुनिया की कुल आबादी की १७ प्रतिशत है। वहीं दुनिया के ३६ प्रतिशत गरीब जिनकी आमदनी प्रतिदिन एक डॉलर मसलन करीब ४० रूपये प्रतिदिन है, भारत में रहती है। यदि इसकी और गहराई में जाएं और सरकारी आंकड़ों का ही आकलन करें तो वर्ष २००५-०६ शहर में प्रति व्यक्ति खर्च ५३८.५८ रूपये और गांव में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च ३५६.३३ रूपये था। और २००४-०५ में प्रति ग्रामीण कुल मासिक खर्च ५५९ रूपये एवं शहरीक्षेत्र क्षेत्र में कुल मासिक खर्च १०५२ रूपये पाया गया था। लेकिन तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट आने के बाद मासिक आय की यह कसौटी अप्रासंगिक हो गई है। इसके अनुसार गांव में प्रति व्यक्ति मासिक आय ४४६ रूपये और शहर में ५८० रूपये प्रति माह कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के दायरे में है।


इसके ठीक दो साल पहले राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के जरिये अर्जुन सेन गुप्त ने बताया था कि भारत की ७७ फीसदी आबादी, मसलन ८३ करोड़ लोग २० रूपये रोजाना से भी कम आय पर गुजारा करने को मजबूर हैं। तेंदुलकर समिति ने जिन गरीब राज्यों की सूची जारी की है उनमें ओड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छााीसगढ़, झारखण्ड और बिहार जैसे राज्य सबसे ज्यादा गरीब हैं। यहां अचरज में डालने वाली बात यह भी है कि इन्हीं राज्यों में बढ़ता और आक्रञमक होता नक्सलवाद सरकारों के लिए संकट बना हुआ है। इससे जाहिर होता है कि आमजन के बीच संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो रहा है। इस हकीकत के सामने आने से ये आरोप भी सही नजर आते हैं कि केन्द्र व राज्य सरकारें राजकोष का उपयोग गरीब तबके के कल्याण में लगाने की बजाय पूंजीपतियों को रियायतें देने में ज्यादा खर्च कर रही हैं। बाजारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था का यही विषगंतिपूर्ण करिश्मा ही तो उपभोग को बढ़वा देने वाला उपभोक्तञ पैदा करेगा, जो बाजार को फलने-फूलने में सहायक सिद्ध होगा।