देश में विकास का लाभ अमीरों को तो खूब मिला है, लेकिन गरीबों की हालत आज भी कमोबेश जस की तस है। वर्तमान आर्थिक नीतियों और उदारीकरण के कारण देश के 17 फीसदी लोग करोड़ों-करोड़ों रुपये और अपार संपत्ति के मालिक बन गए हैं। वे स्वयं को अमेरिका से प्रतिस्पर्धा करने वाला मानने लग गए हैं, जबकि 83 फीसदी जनता गरीबी में जीवन बसर कर रही है। उसे न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न न्यूनतम मजदूरी।
यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकाक के 134वें नंबर पर पिछले दो साल से ठहरा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत के राज्यों की तुलना दुनिया के घोर गरीब और तेजी से विकसित हो रहे देशों से की गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार और उड़ीसा की स्थिति घाना तथा मालावी से भी खराब है, जबकि भारत के ही अन्य राच्य पंजाब ने तरक्की में ब्राजील और मैक्सिको को पछाड़ दिया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल के मोर्चे पर देश की दशा दयनीय है।
अध्ययन में राज्य दर राज्य विषमता को बताया ही गया है, इलाकेवार अंतर्विरोधों का उल्लेख भी किया गया है। देश के 110 करोड़ लोगों में से 62 करोड़ ऐसे राज्यों में रहते हैं, जो विकास में सबसे नीचे हैं। इन पिछड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में देश की एक तिहाई आबादी रहती है। तेज और पिछड़े राज्यों में अंतर शासन की गुणवत्ता का भी है।
यह तथ्य झकझोरता है कि विकास की होड़ में आगे दर्शाए जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व महाराष्ट्र के कुछ जिलो में बाल मृत्युदर सर्वाधिक पिछड़े घोषित राज्यों [बिहार, उड़ीसा आदि] से भी ज्यादा है। मतलब, विकास के लाभ का फल एक ही राज्य की जनता को भी बराबर नहीं मिल रहा। ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्पष्ट भेद है। कुल मिलाकर तेज आर्थिक विकास दर अपने आप में जन-समृद्धि का पर्याय नहीं होती।
समस्या दरअसल उच्च विकास दर अर्जित करने की उतनी नहीं, जितनी कि उच्च विकास दर को बनाए रखने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चौड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।
यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकाक के 134वें नंबर पर पिछले दो साल से ठहरा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत के राज्यों की तुलना दुनिया के घोर गरीब और तेजी से विकसित हो रहे देशों से की गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार और उड़ीसा की स्थिति घाना तथा मालावी से भी खराब है, जबकि भारत के ही अन्य राच्य पंजाब ने तरक्की में ब्राजील और मैक्सिको को पछाड़ दिया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल के मोर्चे पर देश की दशा दयनीय है।
अध्ययन में राज्य दर राज्य विषमता को बताया ही गया है, इलाकेवार अंतर्विरोधों का उल्लेख भी किया गया है। देश के 110 करोड़ लोगों में से 62 करोड़ ऐसे राज्यों में रहते हैं, जो विकास में सबसे नीचे हैं। इन पिछड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में देश की एक तिहाई आबादी रहती है। तेज और पिछड़े राज्यों में अंतर शासन की गुणवत्ता का भी है।
यह तथ्य झकझोरता है कि विकास की होड़ में आगे दर्शाए जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व महाराष्ट्र के कुछ जिलो में बाल मृत्युदर सर्वाधिक पिछड़े घोषित राज्यों [बिहार, उड़ीसा आदि] से भी ज्यादा है। मतलब, विकास के लाभ का फल एक ही राज्य की जनता को भी बराबर नहीं मिल रहा। ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्पष्ट भेद है। कुल मिलाकर तेज आर्थिक विकास दर अपने आप में जन-समृद्धि का पर्याय नहीं होती।
समस्या दरअसल उच्च विकास दर अर्जित करने की उतनी नहीं, जितनी कि उच्च विकास दर को बनाए रखने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चौड़ी हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है।