यह हैरत की बात है कि जिस देश के खाद्यान भंडारों में पड़ा अनाज सड़ रहा हो उस देश के नौनिहाल कुपोषण का शिकार होकर अकाल मौत के मुंह में समा रहे हैं. यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के ऐसे बच्चों की तादाद दुनिया में सबसे ज़्यादा है, जिनका कुपोषण के कारण विकास रुक गया है. विकासशील देशों में ऐसे बच्चों की संख्या करीब 20 करोड़ है.
बच्चों और माताओं के पोषण से संबंधित इस रिपोर्ट के मुताबिक़ बच्चों का विकास अवरुद्ध होने का प्रमुख कारण कुपोषण है. यह पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की एक तिहाई मौतों का प्रमुख कारण भी है. भारत में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग में कम वजन वाले बच्चों की संख्या भी अधिक है. इसके अलावा विभिन्न कारणों से दुनिया भर में होने वाली बच्चों की मौतों में से एक तिहाई भारत में ही होती हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ विकासशील देशों में प्रति वर्ष जन्मे कम वजन वाले 1.9 करोड़ बच्चों में 74 लाख बच्चे भारत के होते हैं, जो दुनिया में सर्वाधिक है. विकासशील देशों के 80 फ़ीसदी कुपोषित बच्चे 24 देशों में रह रहे हैं.
यूनिसेफ की प्रमुख एनएम वेनेमैन का कहना है कि कुपोषण के कारण बच्चे की शारीरिक शक्ति कम हो जाती है, जिससे वह बीमार हो जाता है. कमज़ोर शरीर निमोनिया, डायरिया और अन्य रोगों की चपेट में आ जाता है. इन बीमारियों से जिन बच्चों की मौत होती है उनमें से एक तिहाई से ज़्यादा बच्चे अगर कुपोषण का शिकार नहीं हों तो उन्हें बचाया जा सकता है. भारत में कुपोषण और अविकसित बच्चों की अधिक संख्या का कारण देश की आबादी अधिक होना, बेरोज़गारी और ग़रीबी है.
गौरतलब है कि कुपोषण के कारण अविकसित बच्चों के मामले में अफगानिस्तान पहले नंबर पर है, जबकि भारत का स्थान 12वां है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया और अफ्रीका में 90 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण के कारण कम विकसित हैं, लेकिन दोनों महाद्वीपों में अब इनकी हालत में सुधार हो रहा है. एशिया में ऐसे बच्चों की तादाद 1990 के 44 फीसदी के मुकाबले 2008 में घटकर 30 फ़ीसदी रह जाने की उम्मीद है. इसी तरह अफ्रीका में ऐसे बच्चों की तादाद 1990 के 38 फ़ीसदी के मुकाबले 34 फ़ीसदी रह जाने की उम्मीद है.
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी ही विकास में रुकावट बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.
दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं. देश की लगातार बढती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढ़ी बेरोजगारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है. आज भी भारत में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे. एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की जरूरत होती है. इसलिए सबसे बडी चुनौती फिलहाल भूखों को भोजन कराना है. हमारे संविधान में कहा गया है कि ‘राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा. ‘ मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो जाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं.
हालांकि भारत सरकार ने बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए 15 अगस्त, 1995 में स्कूलों में ‘मिड डे मील’ योजना भी शुरू की, दुनिया के सबसे बड़े पोषण कार्यक्रमों में से एक है. मगर यह योजना भी लापरवाही और भ्रष्टाचार की शिकार रही है. बच्चों के भोजन में छिपकली, मेंढक व कीड़े मिलना, बच्चों को दूषित भोजन दिया जाना, मिड डे मील के भोजन से बच्चों का बीमार हो जाना और तयशुदा मात्रा से कम भोजन दिए जाने की शिकायतें भी आम रही हैं. मिड डे मिल के अनाज में हेराफेरी की खबरें आए दिन सुनने को मिलती रहती हैं. नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में इस योजना की अनेक खामियां उजागर की गईं हैं, जिससे इस योजना की जमीनी हकीकत का पता चलता है. कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि मिड-डे मिल योजना में केंद्र सरकार की ओर से जारी सहायता राशि का इस्तेमाल दूसरी योजनाओं में हो रहा है.
परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री रेणुका चौधरी भी कुपोषण की इस हालत पर चिंता जताते हुए इसे भयावह और शर्मनाक करार देती हैं. उनका मानना है कि नेताओं समेत शिक्षित वर्ग का एक बड़ा हिस्सा कुपोषण की समस्या को समझने में नाकाम रहा है. कुपोषण के लिए कृषि में आए बदलाव को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए वे कहती हैं कि नगदी फसलों के प्रति बढ़े रुझान के कारण किसानों ने अपनी खाद्यान्न सुरक्षा खो दी है.
महिला और बाल विकास मंत्रालय में राज्य मंत्री कृष्णा तीरथ ने हाल ही में राज्यसभा में बताया कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, 2005-06 के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के 42.5 प्रतिशत बच्चों के वजन कम हैं। कुपोषण की समस्या बहुआयामी है और इसके निर्धारकों में घरेलू खाद्य सुरक्षा, विशेषकर महिलाओं की निरक्षरता और जागरूकता का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, स्वच्छता और पर्यावरण संबंधी स्थितियां और क्रय शक्ति आदि शामिल हैं। इसके अलावा लड़कियों का कम उम्र में विवाह होना और कम उम्र में गर्भ धारण भी नवजात शिशुओं के जन्म के समय वजन कम होने का कारण है। इसके साथ ही मां के दूध की कमी, वैकल्पिक पोषकों की कमी, शिशुओं और छोटे बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतों की उपेक्षा और बार-बार संक्रमित होना भी इसके कारण हैं। सरकार कई ऐसी योजनाएं चलाती रही हैं जिनके कारण लोगों के पोषण स्तर में सुधार होता है। दोपहर भोजन योजना, किशोरी शक्ति योजना, अंत्योदय अन्न योजना और संपूर्ण स्वच्छता अभियान इनमें प्रमुख हैं।
इतना ही नहीं प्रशासनिक लापरवाही के चलते हर साल अनाज के सरकारी गोदामों में पड़ा हजारों टन अनाज सड़ जाता है. अगर यह अनाज भूखों के पेट में जाता तो कितनी ही जिंदगियों को बचाया जा सकता था. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज के बच्चे कल का भविष्य हैं. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि उन्हें भरपेट संतुलित आहार मिले. इसके लिए सरकार को पंचायती स्तर पर प्रयास करने होंगे. हमारे देश में अनाज के भंडार भरे हुए हैं, ऐसी हालत में भी अगर बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं तो इसकी जवाबदेही सरकार और प्रशासन की है.