Thursday, April 8, 2010

"देश में गरीबी"

"देश में गरीबी"


जब किसी देश में प्रजातंत्र का अर्थ केवल दलीय साथ को मजबूत करना और दूसरों को जीने के अधिकार से वंचित कर प्राकृतिक संपदा के दोहन से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सूचकांक को बढ़ाना रह जाए तो ऐसे देश में गरीबी बढऩा तय है। इस हकीकत का खुलासा करने वाले हाल ही में दो प्रतिवेदन (रिपोर्टें) ऐसे आए हैं जो तय करते हैं कि भारत में गरीबी का दायरा बेइंतहा बढ़ता जा रहा है। योजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट बताती है कि देश में ४२ प्रतिशत लोग बमुश्किल गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को विवश हैं। ठीक इसके पहले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट ने दर्शाया था कि भारत जीवन स्तर के मानक सूचकांकों की कसौटी पर चार पायदान फिसलकर १३४ वें पर आ गया है। ये प्रतिवेदन सुनिश्चित करते हैं कि भारत की आर्थिक संपन्नता एकांगी है और वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने के भ्रम में वह सिर्फ रेगिस्तानी कुलांचें मार रहा है। आधी आबादी को जीने के मौलिक व संवैधानिक अधिकार से वंचित कर विश्व महाशक्ति बनने का भी क्या औचित्य है ?




देश में संपन्नता और विपन्नता के बीच विषमता की जो खाई लगातार बढ़ रही है उसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक, प्राकृतिक संसाधनों और वन संपदा का सरकारी व निजीकरण। दो, कृषि का यांत्रिकीकरण हो जाने से घाटे में तホदील होती खेती। और तीन संपन्न तबके में बढ़ती भ्रष्टाचार व भोग की लालसा। हैरानी की बात यह है कि विषमता के इन कारकों को केन्द्र व राज्य सरकारें नियंत्रित कर हतोत्साहित करने की बजाय सホसिडी व करों में रियायतें देकर प्रोत्साहित कर रही हैं। इसी साल विाा मंत्री ने बजट प्रावधानों में पूंजीपतियों को कर रियायतों के रूप में करीब तीन लाख करोड़ रूपये की छूटें दी। जबकि कई साल से सूखे और भ्रष्टाचार की मार झेल रहे किसानों को कर्ज माफी के लिए कुल साार हजार करोड़ रूपये का प्रावधान रखा गया। ये प्रावधान विसंगति बढ़ाने वाले नहीं तो और क्या हैं ? जबकि होना यह चाहिए था कि भोग और आर्थिक लिप्सा में लिप्त पूंजीतियों से सチती से बकाया करों की वसूली की जानी चाहिए थी ? क्या राजनीति का यही कल्याणकारी अजेंडा है ?


सुरेश तेंदुलकर की रिपोर्ट से पता चलता है कि जनहित व लोकल्याण का राष्ट्र में भ्रम बनाए रखने के लिए गरीबी व गरीबों की संチया के वास्तविक आंकड़ों पर पर्दा डाला जाता रहा है। हकीकत को बेपर्दा करने वाली इस रिपोर्ट ने साबित किया है कि लगभग ४२ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे कठिन से कठिनतर हालातों में गुजर-बसर कर रहे हैं। जबकि भारत सरकार अब तक करीब २९ प्रतिशत लोगों को ही गरीब मानकर चल रही थी। मसलन जिन गांवों में भारत बसता है का राजनीतिक दल ढोल पीटते नहीं अघाते, उनमें सवा तीस करोड़ लोगों की बजाय ४१ करोड़ लोग ऐसे हैं जो जीने के अधिकार से वंचित रहते हुए भुखमरी के दायरे में जीने को अभिशप्त हैं। इसलिए यह तथ्य वास्तविकता के निकट है कि देश में ४० फीसदी से भी ज्यादा लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं। मुनाफे की अर्थव्यवस्था का क्या यही लोकहित है ?


हमारे देश की सनातनी परंपरा ने ऐसे संस्कार डाले थे कि हमारी आदिवासियों समेत सभी जातीय समूह प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए उसका उपयोग जरूरत की हद तक करते थे। लेकिन विकसित देश कहलें या विकसित लोग हमें मुनाफे के ऐसे विकारग्रस्त सरोकारों से जोड़ रहे हैं कि हमने प्राकृतिक संपदा को सिर्फ मुनाफे के नजरिये से देखना शुरू कर दिया है। लिहाजा प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते निजीकरण के चलते जो आबादी प्रकृति और जंगल पर निर्भर थी उसे उपभोग की वस्तुओं के लिए बाजार का मुंह ताकना पड़ रहा है। इससे यह साबित होता है कि भूमण्डलीय नवउदारवादी कल्याण उच्च और मध्यवर्गीय लोगों तक सिमटकर रह गए हैं।


इन दिनों विश्व की आबादी लगभग छह अरब सात करोड़ है। संयुक्त राष्ट्र के एक आकलन के मुताबिक यह सदी के मध्य (२०५०) तक सालाना सात करोड़ ८० लाख की बढ़ााोरी दर के चलते नौ अरब २० करोड़ हो जाएगी। वाशिंगटन भू-नीति संस्थान का कहना है कि इतनी आबादी को पेट भर खाद्यान्न मुहैया कराने के लिए सोलह सौ हजार अतिरिक्त कृषि रकबे की दरकार होगी। लेकिन भारत समेत पूरी दुनिया में विडंबना यह है कि एक ओर तो औद्योगिक विस्तार के लिए पूरी दुनिया में कृषि भूमि का इस्तेमाल हो रहा है इस कारण कृषि रकबा बढऩे की बजाय घट रहा है। दूसरे, औद्योगीकरण ही जलवायु परिर्वतन और धरती के बढ़ते तापमान का प्रमुख कारण माना जा रहा है, इन वजहों से मौसम ने रूठने के जो तेवर अपनाये हुए हैं वे कृषि पर निर्भर लोगों के लिए आत्मघाती साबित हो रहे हैं। हमारे देश में विदर्भ और बुन्देलखण्ड प्रकृति की इसी नाराजी का शिकार पिछले कई सालों से हो रहे हैं।


कुछ ऐसे ही हालातों के चलते भारत मानव विकास की दौड़ में भी लगातार पिछड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि भारत मानक जीवन स्तर के सूचकांक की कसौटी के १३४ वें पायदान पर आ गया है। भारत २००६ में मानव विकास की दौड़ में १२६ वें पायदान पर २००७-२००८ में १२८ वीं और अब २००९ में १३४ वीं पायदान पर है। इससे तय होता हे कि देश की एक बढ़ी आबादी प्रति व्यक्ति आय और क्रय क्षमता में लगातार पिछड़ रही है। यह आबादी न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधाओं और प्राथमिक शिक्षा के मौलिक हकों से भी वंचित है। ये हालात उस देश के लिए नितांत शर्मनाक हैं जो देश वैश्विक महाशक्ति बनने का सपना देख रहा हो। असमानता के ऐसे ही प्रावधानों के चलते सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का योगदान ५२ प्रतिशत से घटकर १९ प्रतिशत और कृषि विकास की औसत दर ४.५ प्रतिशत से घटकर ३.३ प्रतिशत रह गई है। देश के कुल निर्यात में कृषि उत्पादों का मूल्य भी ६० प्रतिशत से घटकर १० प्रतिशत से भी कम रह गया है।


विश्व में प्रचलित गरीबी की परिभाषा के दायरे में भारत का आकलन करें तो यह कड़वी सच्चाई है कि भारत की कुल आबादी दुनिया की कुल आबादी की १७ प्रतिशत है। वहीं दुनिया के ३६ प्रतिशत गरीब जिनकी आमदनी प्रतिदिन एक डॉलर मसलन करीब ४० रूपये प्रतिदिन है, भारत में रहती है। यदि इसकी और गहराई में जाएं और सरकारी आंकड़ों का ही आकलन करें तो वर्ष २००५-०६ शहर में प्रति व्यक्ति खर्च ५३८.५८ रूपये और गांव में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च ३५६.३३ रूपये था। और २००४-०५ में प्रति ग्रामीण कुल मासिक खर्च ५५९ रूपये एवं शहरीक्षेत्र क्षेत्र में कुल मासिक खर्च १०५२ रूपये पाया गया था। लेकिन तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट आने के बाद मासिक आय की यह कसौटी अप्रासंगिक हो गई है। इसके अनुसार गांव में प्रति व्यक्ति मासिक आय ४४६ रूपये और शहर में ५८० रूपये प्रति माह कमाने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के दायरे में है।


इसके ठीक दो साल पहले राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के जरिये अर्जुन सेन गुप्त ने बताया था कि भारत की ७७ फीसदी आबादी, मसलन ८३ करोड़ लोग २० रूपये रोजाना से भी कम आय पर गुजारा करने को मजबूर हैं। तेंदुलकर समिति ने जिन गरीब राज्यों की सूची जारी की है उनमें ओड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छााीसगढ़, झारखण्ड और बिहार जैसे राज्य सबसे ज्यादा गरीब हैं। यहां अचरज में डालने वाली बात यह भी है कि इन्हीं राज्यों में बढ़ता और आक्रञमक होता नक्सलवाद सरकारों के लिए संकट बना हुआ है। इससे जाहिर होता है कि आमजन के बीच संसाधनों का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हो रहा है। इस हकीकत के सामने आने से ये आरोप भी सही नजर आते हैं कि केन्द्र व राज्य सरकारें राजकोष का उपयोग गरीब तबके के कल्याण में लगाने की बजाय पूंजीपतियों को रियायतें देने में ज्यादा खर्च कर रही हैं। बाजारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था का यही विषगंतिपूर्ण करिश्मा ही तो उपभोग को बढ़वा देने वाला उपभोक्तञ पैदा करेगा, जो बाजार को फलने-फूलने में सहायक सिद्ध होगा।


3 comments:

  1. ब्लॉग की इस दिलचस्प दुनिया में
    आपका तहेदिल से स्वागत

    ReplyDelete
  2. हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है... इसी तरह तबियत से लिखते रहिये.

    ReplyDelete
  3. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

    ReplyDelete